The चमकौर का युद्ध Diaries

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यह सुनकर गुरूदेव जी ने सिक्खों से कहा: ‘तुम कौन से साहिबजादों (बेटों) की बात करते हो, तुम सभी मेरे ही साहबजादे हो’ गुरूदेव जी का यह उत्तर सुनकर सभी सिक्ख आश्चर्य में पड़ गये। गुरूदेव जी के बड़े सुपुत्र अजीत सिंह पिता जी के पास जाकर अपनी युद्धकला के प्रदर्शन की अनुमति माँगने लगे। गुरूदेव जी ने सहर्ष उन्हें आशीष दी और अपना कर्त्तव्य पूर्ण करने को प्रेरित किया।

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गुरूदेव जी तो दूसरों को उपदेश देते थे: जब आव की आउध निदान बनै, अति ही रण में तब जूझ मरौ। फिर भला युद्ध से वह स्वयँ कैसे मुँह मोड़ सकते थे ? गुरूदेव जी ने सिंघों को उत्तर दिया– मेरा जीवन मेरे प्यारे सिक्खों के जीवन से मूल्यवान नहीं, यह कैसे सम्भव हो सकता है कि मैं तुम्हें रणभूमि में छोड़कर अकेला निकल जाऊँ। मैं रणक्षेत्र को पीठ नहीं दिखा सकता, अब तो वह स्वयँ दिन चढ़ते ही सबसे पहले अपना जत्था लेकर युद्धभूमि में उतरेंगे। गुरूदेव जी के इस निर्णय से सिक्ख बहुत चिन्तित हुए। वे चाहते थे कि गुरूदेव जी किसी भी विधि से यहाँ से बचकर निकल जाएँ ताकि लोगों को भारी सँख्या में सिंघ सजाकर पुनः सँगठित होकर, मुगलों के साथ दो दो हाथ करें।

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गुरूदेव जी ने आगे जाना उचित नहीं समझा। अतः चालीस सिक्खों को छोटी छोटी टुकड़ियों में बाँट कर उनमें बचा खुचा असला बाँट दिया और सभी सिक्खों को मुकाबले के लिए मोर्चो पर तैनात कर दिया। अब सभी को मालूम था कि मृत्यु निश्चित है परन्तु खालसा सैन्य का सिद्धान्त था कि शत्रु के समक्ष हथियार नहीं डालने केवल वीरगति प्राप्त करनी है।

योजना अनुसार गुरूदेव जी और सिक्ख अलग-अलग दिशा में कुछ दूरी पर चले गये और वहाँ से ऊँचे स्वर में आवाजें लगाई गई, पीर–ऐ–हिन्द जा रहा है किसी की हिम्मत है तो पकड़ ले और साथ ही मशालचियों को तीर मारे जिससे उनकी मशालें नीचे कीचड़ में गिर कर बुझ गई और अंधेरा घना हो गया। पुरस्कार के लालच में शत्रु सेना आवाज की सीध में भागी और आपस में भिड़ गई। समय का लाभ उठाकर गुरूदेव जी और दोनों सिंह अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने लगे और यह नीति पूर्णतः सफल रही। इस प्रकार शत्रु सेना आपस में टकरा-टकराकर कट मरी।

ऐसा ही किया गया। भाई उदय सिंह तथा जीवन सिंह अपने अपने जत्थे लेकर शत्रु के साथ भिड़ गये। इतने में गुरूदेव जी सिरसा नदी पार करने में सफल हो गए। किन्तु सैकड़ों सिक्ख नदी पार करते हुए मौत का शिकार हो गए क्योंकि पानी का वेग बहुत तीखा था। कई तो पानी के बहाव में बहते हुए कई कोस दूर बह गए। जाड़े ऋतु की वर्षा, नदी का बर्फीला ठँडा पानी, इन बातों ने गुरूदेव जी के सैनिकों के शरीरों को सुन्न कर दिया। इसी कारण शत्रु सेना ने नदी पार करने का साहस नहीं किया।

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